बुधवार, 2 जून 2010

30. अक्स

अक्स धुंधला सा दिखा,
पहचानने की भूल थी |
दोष नज़रों का नहीं था,
आइने पर धूल थी ||

अक्स था कुछ अजनबी सा,
क्या वजह क्या बात थी |
आज इन आंखों में फिर,
बरसों पुरानी याद थी ||

ढूंढती है अक्स अपना,
क्या हुआ है आंख को |
आइना क्यों कर के समझा,
नासमझ इस कांच को  ||


अक्स ने अक्सर किया वो,
काम जो करना न था |
क्या वजह थी, खोल डाला,
घाव जो भरना न था ||


आइने से शर्त है कि,
वो दिखे चाहे जहां |
सच अगर कहना ही है,
तो अक्स न आए वहां ||


मैं खडा़ निश्चल किनारे,
अक्स हिलते ताल में |
आज अपने ही फंसे हैं,
दूसरों के जाल में ||


बढ़ रही है उम्र लेकिन,
कौन यह बतलाएगा |
इस हकीकत की बयानी,
अक्स ही कर पाएगा ||


मैंने जीवन में चुना था,
ज्ञान के वरदान को |
अक्स उसका आंख से,
दिखता नहीं नादान को ||

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तन का सजना सजा हो गया,
जब होवे दुखियारा मन |
अक्स झूठ की करे वकालत,
सत्य दफ़न है अंतर्मन ||

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है हकीकत सामने,
केवल ये परछांई नहीं |
अक्स तो जाने है किन्तु,
तूं समझता ही नहीं ||

 
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दिन महीने साल बीते,
पर समझ में आई ना |
धूल चेहरे पर लगी है,
पोंछते हो आईना ||