बुधवार, 2 जून 2010

30. अक्स

अक्स धुंधला सा दिखा,
पहचानने की भूल थी |
दोष नज़रों का नहीं था,
आइने पर धूल थी ||

अक्स था कुछ अजनबी सा,
क्या वजह क्या बात थी |
आज इन आंखों में फिर,
बरसों पुरानी याद थी ||

ढूंढती है अक्स अपना,
क्या हुआ है आंख को |
आइना क्यों कर के समझा,
नासमझ इस कांच को  ||


अक्स ने अक्सर किया वो,
काम जो करना न था |
क्या वजह थी, खोल डाला,
घाव जो भरना न था ||


आइने से शर्त है कि,
वो दिखे चाहे जहां |
सच अगर कहना ही है,
तो अक्स न आए वहां ||


मैं खडा़ निश्चल किनारे,
अक्स हिलते ताल में |
आज अपने ही फंसे हैं,
दूसरों के जाल में ||


बढ़ रही है उम्र लेकिन,
कौन यह बतलाएगा |
इस हकीकत की बयानी,
अक्स ही कर पाएगा ||


मैंने जीवन में चुना था,
ज्ञान के वरदान को |
अक्स उसका आंख से,
दिखता नहीं नादान को ||

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तन का सजना सजा हो गया,
जब होवे दुखियारा मन |
अक्स झूठ की करे वकालत,
सत्य दफ़न है अंतर्मन ||

-=-=-=-

है हकीकत सामने,
केवल ये परछांई नहीं |
अक्स तो जाने है किन्तु,
तूं समझता ही नहीं ||

 
-=-=-=-

दिन महीने साल बीते,
पर समझ में आई ना |
धूल चेहरे पर लगी है,
पोंछते हो आईना ||

सोमवार, 24 मई 2010

29. मौन

किसने, कब, क्यों, कहां,

कितने, कैसे और कौन?

उत्तर मौन


मेरे प्रश्न का उत्तर

सदा से रहा है मौन


अब यदि भविष्य में

कभी कोई बोल फूटा

और यह मौन टूटा

मेरे लिए निरर्थक होगा,

क्योंकि मेरे प्रश्नों के सार्थक उत्तर

केवल मौन ने दिए हैं

बुधवार, 19 मई 2010

28. मुस्कान


मृदु हास्य की रेखा

जो मुंह से कान तक खिंच जाती है

मुस्कान कहाती है

मंगलवार, 11 मई 2010

27. चश्मा

1

मनमें विचार आया ; कैसा ये श्रृँगार पाया,

भरे बाजार धर दी इज्जत ही ताक पर।

मेरी ही आँखों से मुझे ही दिखाने वाला,

चश्मा सवार सरे-आम मेरी नाक पर॥

2

आँखों के आगे खडी़ काँच की दीवार;

दृश्य करदे साफ़ जब झाँकें उस पार।

ऐ नकचढी़-ऐनक बता है क्या ख़ता मेरी;

खींचती है कान मेरे तूँ क्यों बारँबार॥

3

प्राप्त हुई रचनाओं का करके सँपादन;

सँपादक-गण करते हैं जैसे प्रकाशन।

वैसे ही काम को आसान बना देता है;

चश्मा दूरी से पहचान बना देता है॥

4

चक्षुमित्र चष्मे को देखा जब गौर से;

पाया इसकी चेहरे से दुश्मनी पुरानी है।

आँखों को कैद कर हावी रहता नाक पर,

पकड़े दोनो कान सरे-आम कमानी है॥

5

खुद की ही आँखों से खुद को दिखाए दुनिया,

नज़र बँद करदे ये अद्भुत करिश्मा।

आँखों के ऐब में, चेहरे के रौब में,

सदा सहायक होता है चश्मा॥

6

ऐंठता है कान;

    रहता नाक पे सवार।

                    फिरभी नहीं शिकायत;

                 ये कैसा लोकाचार॥

रविवार, 18 अप्रैल 2010

26. कर्म-योगी

चाह नहीं क्रोध की; व्यक्ति के विरोध की

दोष वृत्ति मानकर; इनकी प्रवृत्ति जानकर

काम क्रोध मोह यश; भाव से नहीं विवश

शक्ति को सहेज कर; देख ले उठा नज़र

परिस्थिति निहार कर; फिर से तूं विचार कर

वक्त की पुकार है; मुक्ति की गुहार है

कर्म-योगी कर्म से; रुख बदल दे धर्म से

उठ तूं उठ के वार कर; धर्म-युद्ध जान कर

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

25. नज़र




 

नज़र घुमा कर हमने देखा, नज़रों वाले नज़र न आए
हालातों से नज़र चुराते, देख नज़ारा हम घबराए

आडंबर करते आकर्षित, किन्तु नहीं हमने अपनाए
सीधे सादे जीवन को ना, कोई बुरी नज़र लग जाए

नज़रों के इस नज़राने पर, गर्व करें, क्यों हम इतराऐं
जिसने उनको नज़र किया है, नज़र झुका,अहसान जताऐं

नज़र-बंद हो गई सभी की, सत्य नहीं स्वीकार कर रहे
बिन सामान खुली दुकानें, सपनों का व्यापार कर रहे

अंतरमन के वातायन से, उपरवाला झांक रहा है
दुनियादारी के दलदल में, कितने डूबे आंक रहा है

नज़रें ढूंढ रही थी जिनको, बहुत सताया नज़र न आया
थक कर बैठे, आंखें मूंदी, अंतरमन में उसको पाया

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

24. ‘दान’

पात्र देख कर दीजिए; द्रव्य-दक्षिणा-दान।
मन में पावन भाव हों; पास न हो अभिमान॥

पात्र पुत्र सा खोज कर; करें समर्पित द्रव्य।
गुण-क्षमता से हो भरा; सपने जिसके भव्य॥

जो खेतों को सींच दे; बढा़ सके व्यवसाय।
द्रव्य सौंप उस पुत्र को; हृदय सदा हरसाय॥

दिया दान तो क्या किया; किया नहीं अहसान।
मानवता के हवन में समिधा इसको जान॥

द्रव्यदान भी जब यहां चुका सके ना मोल।
धर पलडे़ पर दक्षिणा; लिया ग्यान  को तौल॥

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

23. दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह

1

मुश्किलें हैं सामने और जूझते हैं हम,

मंजिलें हैं कौन सी,यह पूछते हैं हम,

जी रहे हैं जिंदगी को बोझ की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

2

जो भी आया सामने वह काम कर लिया,

थक गया तो दो घडी़ आराम कर लिया,

हर हादसे को देखता हूं मौज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

3

शांत मन से सोचूं दुनिया जागती देखूं,

चंचल मन से सोचूं दुनिया भागती देखूं,

दुनिया बदले रंग मेरे सोच की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

4

सोचता हूं काम का मैं ढंग बदल लूं,

रूप बदल लूं मैं नया रंग बदल लूं,

चाल ढाल कर लूं किसीऔर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

5

है कलयुगी व्यापार का यह कैसा चमत्कार,

सब करते झूठ को सरे बाजार नमस्कार,

वो सर झुकाए जा रहा सच, चोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

6

भाव की अभिव्यक्ति को मिलते नहीं हैं शब्द,

लय के अभाव में यही है गीत का प्रारब्ध,

साज से सुर हैं निकलते शोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

7

जिंदगी का लक्ष मैं पहचानता नहीं,

जा रहा हूं किस दिशा यह जानता नहीं,

नियति है पतंग बंधी डोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

8

सामाजिक प्राणी है मानव,रहता है नियम से,

खाना-पीना-सोना सब-कुछ करता सही समय से,

नियमित और अनुशासित जीवन फ़ौज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

9

एक वोट की ताक़त, सोचूं राज मिल गया,

प्रजातांत्रिक परंपरा में ताज मिल गया,

गंगू तेली सोचे राजा भोज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

शनिवार, 30 जनवरी 2010

22. उडा़न




मुझे बेदख़ल क्या करेगा ज़माना

मेरा आशियां तो खुला आसमां है


21. सारा आकाश


मन पंछी क॓ पंख दो, आस और विश्वास |

सीमा रहित उडा़न को, है सारा आकाश ||

सोमवार, 25 जनवरी 2010

20. कर्मठ-योद्धा

कर्म-क्षेत्र के कर्मठ योद्धा,
जब भी कोई लक्ष्य बनाते
स्पष्ट सोच और नीति-नियोजित,
सही समय पर कदम बढा़ते
नियति को भी देखा जाता,
उन मौकों का लाभ उठाते
जीवन के अनमोल क्षणों से,
स्वर्णिम हस्ताक्षर कर जाते

[मेरी कुछ रचनाऐं किसी विशेष व्यक्ति के लिए अथवा विशेष परिस्थिति-वश लिखी गई| उनमें निहित व्यापकता को देखते हुए उन्हें यहां समाविष्ट कर रहा हूं| समावेष करने के समय का संयोग व्यक्ति-विशेष से करना भी एक प्रकार की भावाभिव्यक्ति ही मानता हूं, जिसे महसूस कर कुछ लोग आनन्द का अनुभव अवश्य करेंगे]

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

19. नव-वर्ष


उज्वल कल की करें कामना
बीते कल का ले आधार
आओ मिलकर नए वर्ष में
कर लें सब सपने साकार
कार्य-कुशलता मूल-मंत्र हो
आलस का होवे प्रतिकार
लगन और मेहनत से जुटकर
खुशहाली का खोलें द्वार

नव-वर्ष के अवसर पर इस सहस्त्राब्धि का पहला दिन याद आ जाता है जिसमें मुझे इतनी नवीनता दिखी कि उनके वर्णन का लोभ संवरण नहीं कर सका| निम्न पंक्तियाँ उन्हीं संयोगों कि ओर ध्यानाकर्षण का प्रयास है| केवल सन्दर्भ के लिए याद दिला दूं कि ०१.०१.०१ के दिन सोमवार था जो कि सप्ताह का पहला दिन माना जाता है|
१००० वर्षों बाद ३००१ में भी दिनांक तो ०१.०१.०१ ही लिखी जाएगी किन्तु वह दिन सप्ताह का सातवाँ दिन होगा, अर्थात उस दिन रविवार होगा| नीचे लिखी पंक्तियाँ का संयोग अब ७००० वर्षों बाद अर्थात ९००१ में ही पुनः संभव होगा| 

 नवल दिवस, दिन-अंक नवल,
यह वार नवल, सप्ताह नवल
इस नए वर्ष का माह नवल
और नए दशक का साल नवल
इक नई सदी का दशक नवल
और दशम-शती की सदी नवल
नव-युग का शुभ नव-द्वार बने,
यह दशम-शती त्यौहार नवल