बुधवार, 23 दिसंबर 2009

18. मितव्ययता में अनियमितता

नित नियम से हम पहुंच जाते नहाने के लिए,

छोड़ देते नल खुला, पानी बहाने के लिए।

तप रही है धूप बाहर रौशनी भरपूर है,

पर सड़क पर बत्तियां भी जल रही, मजबूर हैं॥

पान ठेले पर मिलें या चाय की दुकान पर,

रंज होता है मुझे इन अफ़सरों की शान पर।

इनसे तो कुर्सी ही अच्छी, खा रही ठंडी हवा,

देश की प्रगती की जाने, कौन सी होगी दवा॥

दृश्य ये कुछ आम हैं पर बात मेरी खास है,

इस तरह चलता रहा तो बस कयामत पास है।

इस धरा पर धारणा कुछ इस तरह की व्याप्त है,

जिसको जो भी चाहिए, सब कुछ यहां पर्याप्त है॥

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

17. सकारात्मक निश्क्रियता

क्या पाया सक्रिय होकर ?

न होते सक्रिय; न करते काम;

न होता नाम; न ही पहचान;

न होता राग; न होता द्वेश;

न होता मोह; न होता क्लेष;

न कोई जानता; न कोई मानता;

न होते पद; न होता मद;

न होते रगड़े; न होते झगड़े;

कितना अच्छा होता; गुमनाम सी जिन्दगी जीता;

कितनी सकारात्मक होती निश्क्रियता

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

16. कर्म-साधना

फंस के चक्रव्यूह में,शब्द के समूह में

भाव कुलबुला रहे,वक्त को बुला रहे

कभी तो वक्त आएगा,अनर्थ से बचाएगा

अर्थ-पूर्ण अर्थ को,न्याय तो दिलाएगा

तर्क अर्थघात कर,भाव पर प्रहार कर

स्वार्थ-सिद्धि कर रहा,चैन सबका हर रहा

खुद को तूं बुलंद कर,मुक्त कर स्वतंत्र कर

कर्म-साधना प्रखर,धर्म भावना मुखर

लक्ष्य वेधना मगर,हौसले सहेज कर

श्रम का हाथ थामना,पूर्ण होगी कामना

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

15. जिन्दगी

देखता हूँ जब भी तुझको, गौर से मैं जिन्दगी

सोचता हूँ क्या समझ पाऊँगा तुझको जिन्दगी

क्या कहूं मैं साँस के आवागमन को जिन्दगी

या भरा हो जोश तब मानूं मैं उसको जिन्दगी

जोश में हरदम रहे चैतन्य-रूपा जिन्दगी

जो नशे में डोलती क्या ख़ाक है वो जिन्दगी

डरते-डरते जी रहे, किस काम की यह जिन्दगी

भय को जो भयभीत कर दे, है निडर वह जिन्दगी

जब से थामा हाथ मेरा, है तूं मेरी जिन्दगी

यह मेरा  सम्बंध है; बंधन नहीं है जिन्दगी

आज मेरा है ईरादा; और वादा जिन्दगी।

जिन्दगी भर साथ ना छोडूंगा तेरा जिन्दगी॥

बुधवार, 4 नवंबर 2009

14. घटना

'घटना' को तो घटना ही था, जीवन घटनाओं का क्रम है।

कोई इसको सत्य मानता, कोई कहता केवल भ्रम है॥

जितने चिंतक उतनी बातें, अलग-अलग से दृष्टिकोण हैं।

एक कहे जीवन को मस्ती, कहे दूसरा चिंतन स्थल है॥

जैसे– जैसे उम्र बढ़ रही, जीवन घटता ही जाता है।

जीवन की इन घटनाओं का,
                                       दिन घटने से क्या नाता है ?

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

13. 'सुख – दुःख'


भूल गए वर्षों के सुख को,
दुःख के कुछ दिन याद रहे।
मधुरिम स्मृतियां विस्मृत कर दी,
कड़वाहट ले साथ चले॥

क्या कारण है हम रखते हैं,
हर दम दुःख को साथ सदा।
जो पाया सब भूल गए,
जो ना पाया सो याद रहा॥


ऐसा ना हो इस जीवन में,
गलती ऐसी कर जाएं।
सुख को तो अनदेखा कर दें,
दुःख-स्मृतियां संजो जाएं॥


विश्लेषण जब लोग करेंगे,
एक सार होगा सबका।
जीवन भर थी यही शिकायत,
'रात मच्छर की – दिन मक्खी का'

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

12. चुनौती



मन के तम तक पहुंच सकेगी, दीप तुम्हारी, जब रश्मि।

सीमित हो, पर साथ लिए हो, तृप्ति-सुधा-रस धन-लक्ष्मी॥

बस छोटी सी यही चुनौती, कर लेना स्वीकार कभी।

दीवाली त्यौहार बने, सच्चे अर्थों में पूर्ण तभी॥

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

11. अविस्मरणीय माँ

भय से मुक्ति - अविरल शक्ति,
                                     ईश्वर में विश्वास अपार|
स्वास्थ्य उक्तियाँ-ज्ञान सूक्तियां,
                                जिनमें  जीवन भर का सार|
माँ से समता - किसमे क्षमता,
                                    संस्कारों की पावन धार|
स्नेहसिक्त शुभचिंतक ममता,
                                भावः भरा अतुलित भंडार||

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

10. हे राम........








गाँधी के जीवन से ;
दार्शनिकों ने सत्य को निकाला
पुस्तकों में दफ़नाया
और सत्य को सत्य ही में
देश से बाहर कर दिया।

अहिंसा के प्रचार में
शिक्षकों ने बहुत नाम कमाया
छात्रों को अहिंसा का अर्थ बतलाया
इस दुर्लभ कृत्य का शब्दार्थ समझाया
नहीं समझे तो डराया-धमकाया
और अँत में डँडे के जोर से
अहिंसा का पाठ पढाया।

राजनेताओं ने गाँधीवाद अपनाया
वोटों के लिए गाँधी को खूब भुनाया
सत्याग्रह के नाम पर जब नहीं चली मनमानी
तो घोटालों के रास्ते देश को बेच खाया।

गाँधी ने अँतिम साँस लेकर कहा था ‘हे राम’
वही आ रहा है आम आदमी के काम
अब तो हर साँस में वह तिल-तिल कर मरता है
और मजबूरी में हर बार
‘ हे राम ’ कहता है॥

गाँधी व्यक्ति नहीं एक विचारधारा थे | हमने उस विचारधारा को छोड़ दिया किन्तु गाँधी नाम का भरपूर फायदा उठाया | गाँधी के मूल-भूत सिद्धांतों - 'सत्य, अहिंसा और राम-राज्य' का जो चित्र आज दिख रहा है उसी पर यह एक व्यंग्य है | गाँधी जयंती के अवसर पर,  आज के सन्दर्भ में गाँधी की सार्थकता खोजने के प्रयासों की आवश्यकता है | 

रविवार, 27 सितंबर 2009

9. मर्यादा पुरुषोत्तम राम

मूल्यों को जो तिलांजलि दे; बिकते सुख-सुविधा के दाम|
धन के  भूखे पद के लोभी, चलते हैं नेता के नाम||
जनता जागे नेता सोए, कैसे ये विधना के काम|

क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


हरित-क्रांति  और श्वेत-क्रांति की बातें आ कर चली गई|
अन्त्योदय के वादे पा कर; जनता फिर-फिर छली गई||
सोच-सोच कर इन बातों को; हुई रात की नींद हराम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


बचपन बीता पुस्तक ढोते; ज्ञान-साधना सुप्त हुई|
होड़ जवानी में ललकारे; खेल-भावना लुप्त हुई||
भूल गए सुर पैंजनियां के; आँगन में कब ठुमके राम|
 क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


आज पेट भर रोटी खा कर भूख कहाँ मिट पाती है| 
चाहे जितना पा जाएँ फिर भी ईच्छा रह जाती है|
बिना यतन के धन पाने की ईच्छा रहती सुबहो-शाम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||



भगवद्-गीता में श्री कृष्ण ने कहा - 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम||' एक प्रचलित व लोकप्रिय गीत के बोल भी हैं : 'जब-जब होता नाश धर्म का और पाप बढ़ जाता है, तब लेते अवतार प्रभु और विश्व शांति पाता है'| उपरोक्त रचना उसी भावः से प्रेरित है|

बुधवार, 23 सितंबर 2009

8. बीच सफ़र में


बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥

सफ़र अभी ही शुरु हुआ था, नदिया में तूफ़ान आ गया।
खडा़ हुआ मजबूर किनारे, देख रहा उस पार गाँव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥

दिन का भी अवसान हो रहा,सूर्य अस्त हो रहा आस का।
ना जाने कब मिल पाएगा, रैन-बसेरा थके पांव को।
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥

जीवट वाला केवट होवे, नौका में होवे मजबूती।
लगन लगी हो,दृढ़ निश्चय हो,पहुंचेगा वह तभी ठांव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित,खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥

रविवार, 20 सितंबर 2009

7. पाथेय

चार दिनों की कर तैयारी,

साथ चले थे जीवन-साथी।

करें अचंभा, अनजाने ही,

कब इतना पाथेय कर लिया॥


                              
पार कर रहे जीवन-गंगा,

जल का भरके पात्र धर लिया।

नाव खा रही है हिचकोले,

ये कैसा पाथेय कर लिया॥


छोटा सा तो सफ़र कर रहे,

सिर पर इतना भार धर लिया।

पग डग में करते हैं डगमग,

क्यों इतना पाथेय कर लिया॥

साधारणत: सफ़र में क्षुधापूर्ति के लिए साथ लिए गए खाद्यान्न को पाथेय कहा जाता है| यहाँ  जीवन के सफ़र में काम आ सकने  की कल्पना कर संचित की गई वस्तुओं को; व्यापक सन्दर्भ में पाथेय कहा गया है|

सोमवार, 14 सितंबर 2009

6. मातृभाषा - राष्ट्रभाषा

मातृभूमि से अगणित आशा;

मातृस्नेह की है अभिलाषा।

फिर क्यों झिझकें; क्यों न बोलें;

मातृभाषा -  राष्ट्रभाषा॥


हिंदी से जिन्हें लगाव होता है उनके मन में 'हिंदी दिवस' के दिन वैचारिक हलचल होना स्वाभाविक है| मातृभाषा ही माध्यम है दिल की बात को उचित अभिव्यक्ति देने का और उसे सही सन्दर्भ में श्रोता के दिल तक पहुँचाने का| यह कठिन नहीं है, बस थोड़े से प्रयास की और थोड़े अभ्यास की  जरूरत है| 'हिंदी दिवस' के अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन|

रविवार, 13 सितंबर 2009

5. सपने

-= 1 =-

तुम्हारी नसीब में तुम्हारे;

मेरी नसीब में मेरे,

न देख सकता हूँ तुम्हारे;

न दिखा सकता हूँ अपने,
..............................सपने।


-= 2 =-

जब भी चाहूँ देख सकूँ; यह सुविधा नहीं है मुझको,

और चाहकर भी अनदेखा; करना मुश्किल उसको।

काट-छाँट भी नहीं है सँभव; है ऐसी मजबूरी,

हैं तो सपने; मेरे अपने; फिर यह कैसी दूरी॥

जीवन कई बार अजीब सी परिस्थितियों में ला खड़ा करता है जब विचित्र से मानसिक द्वन्द में हम उलझ जाते हैं | ऐसी ही मनस्थिति को बहुत सहज माध्यम से कहने का प्रयास है उपरोक्त पंक्तियाँ |

4. मैं मेरा और मेरा मैं


मैं ही वादी - मैं प्रतिवादी

मैं ही न्यायाधीश यहां।

मन की अदालत- मन की गवाही

मन का ही विश्वास यहां॥


 
...............नहीं यहां पर संगी साथी,

...............नहीं सूझती राह यहां।

...............चिंता मेरी-चिंतन मेरा,

...............मेरा मुझको साथ यहां॥


 प्रहरी बना मैं शीश महल का,

जागूं सारी रात यहां।

कंकर पत्थर ले हाथों में,

मौका तकते लोग यहां॥


...............सबके सुख की करूं कामना,

...............सुखी सभी हों लोग यहां।

...............सपना मेरा अपना है पर,

...............सपने लेना दोष यहां॥


सभी यहां थे संगी साथी,

सभी स्वजन और मित्र यहां।

काम पडा़ जब नज़र घुमाई,

सभी पराए लोग यहां॥


 
इस रचना को जब भी पढ़ता हूँ ; मुझे स्व. पु.ल.देशपांडे की ये प्रसिद्ध  पंक्तियाँ बरबस ही याद आ जाती हैं 'कसा मी; कसा मी;कसा मी कसा मी, जसा मी तसा मी; असा मी; असा मी' |

3. मूर्तिकार

आवश्यक औजारों को हाथों में थामता है;

अनगढ़ शिलाओं को अनुभव से जाँचता है।

श्रम करता है, पसीना बहाता है;

समय की पूँजी उस पर लुटाता है।

वाँछित को रखता है; अवाँछित छाँटता है,

सफल हो जाए तो मूर्तिकार कहलाता है।

2. मेरा जीवन



मेरा जीवन कोरा कागज़,
हाशिए में जी रहा हूँ।
सोचने का वक्त दुर्लभ,
मैं सफ़र में ही रहा हूँ॥

दिनचर्या ख़ुद ही लिख जाती,
दिन भर बीती सारी बातें।
समय सोख लेता है सुर्खी,
मिट जाती हैं सारी यादें॥


जब चाहूँ मैं कुछ लिख डालूँ,
जानें कहाँ कलम खो जाती।
गहरा-चिंतन; पैनी-दृष्टि;
उस पल ही मुझको बिसराती॥


कलम मिली तो हुआ जरूरी,
ढूँढूँ अपनी शब्द सियाही।
भाषा में बदलाव आ गया,
स्याही मैंने सूखी पाई॥

सोच रहा हूँ लिखना छोडूँ ,
काम करूँ कुछ ऐसे दुष्कर।
पढ़ने का भी कष्ट न होवे।
लोग सराहें चित्र समझ कर॥

1. जीवन की कीमत


दुनिया की इस उहापोह में,

जीवन का दुर्लक्ष हुआ।

नून-तेल-लकडी़ में सीमित,

इस जीवन का लक्ष हुआ॥


आज सफलता की परिभाषा,

क्रय क्षमता तक सीमित है।

'और कमाओ - और चाहिए',

यही भावना जीवित है॥



इसी यज्ञ में दे आहूती,

पल-पल अपने हर पल की।

कौडी़ मोल लगा दी कीमत,

अपने दुर्लभ जीवन की॥