1
मनमें विचार आया ; कैसा ये श्रृँगार पाया,
भरे बाजार धर दी इज्जत ही ताक पर।
मेरी ही आँखों से मुझे ही दिखाने वाला,
चश्मा सवार सरे-आम मेरी नाक पर॥
2
आँखों के आगे खडी़ काँच की दीवार;
दृश्य करदे साफ़ जब झाँकें उस पार।
ऐ नकचढी़-ऐनक बता है क्या ख़ता मेरी;
खींचती है कान मेरे तूँ क्यों बारँबार॥
3
प्राप्त हुई रचनाओं का करके सँपादन;
सँपादक-गण करते हैं जैसे प्रकाशन।
वैसे ही काम को आसान बना देता है;
चश्मा दूरी से पहचान बना देता है॥
4
चक्षुमित्र चष्मे को देखा जब गौर से;
पाया इसकी चेहरे से दुश्मनी पुरानी है।
आँखों को कैद कर हावी रहता नाक पर,
पकड़े दोनो कान सरे-आम कमानी है॥
5
खुद की ही आँखों से खुद को दिखाए दुनिया,
नज़र बँद करदे ये अद्भुत करिश्मा।
आँखों के ऐब में, चेहरे के रौब में,
सदा सहायक होता है चश्मा॥
6
ऐंठता है कान;
रहता नाक पे सवार।
फिरभी नहीं शिकायत;
ये कैसा लोकाचार॥