रविवार, 26 फ़रवरी 2012

32. ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ - (2)


सोने की चिड़िया था भारत, सुन्दर सपने बीत गए
कर्ज-भार से ग्रसित व्यवस्था, सँसाधन सब रीत गए
भ्रष्टाचार चतुर्दिक फैला, कौन सँभाले बिगड़े काम
क्या कल युग में पैदा होंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम
  
सत्ता-सुख पाने की खातिर, खुल के भ्रष्टाचार चला
वोटों को आकर्षित करने, वादों का व्यापार चला
प्रजातंत्र का पावन मंदिर, घोटालों से है बदनाम
क्या कल युग में पैदा होंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम

खेल बना व्यापार यहां पर, खेल-भावना रोती है
जिसके हाथों में हो लाठी, भैंस उसी की होती है
विज्ञापन कर रहे खिलाड़ी, सब कुछ बेचें ले कर नाम
क्या कल युग में पैदा होंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम

खेल आज खिलवाड़ बन गया, बिकते हैं सारे आयाम
पूर्व-नियोजित परिणामों से, पाते मनचाहा अंजाम
बिकवाली में खड़ा खिलाड़ी, खुले-आम होता नीलाम
क्या कल युग में पैदा होंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम

[ लगभग ग्यारह वर्ष पहले मैंने 'क्या कल युग में पैदा होंगे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम' शीर्षक से एक कविता लिखी थी जिसे इस ब्लॉग में सम्मिलित कर चुका हूँ । मेरी रचनाओं के एक प्रशंसक ने इसे और विस्तृत करने का आग्रह किया जिसके फलस्वरूप उपरोक्त कृति की रचना हुई । ग्यारह वर्षों के अंतराल का विषयवस्तु पर प्रभाव तो पड़ना ही था सो सामयिक सन्दर्भों में एक अलग प्रवाह लिए हुए यह रचना कैसी लगी, आपकी प्रतिक्रियाओं से ज्ञात होगा । ]

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