बुधवार, 23 दिसंबर 2009

18. मितव्ययता में अनियमितता

नित नियम से हम पहुंच जाते नहाने के लिए,

छोड़ देते नल खुला, पानी बहाने के लिए।

तप रही है धूप बाहर रौशनी भरपूर है,

पर सड़क पर बत्तियां भी जल रही, मजबूर हैं॥

पान ठेले पर मिलें या चाय की दुकान पर,

रंज होता है मुझे इन अफ़सरों की शान पर।

इनसे तो कुर्सी ही अच्छी, खा रही ठंडी हवा,

देश की प्रगती की जाने, कौन सी होगी दवा॥

दृश्य ये कुछ आम हैं पर बात मेरी खास है,

इस तरह चलता रहा तो बस कयामत पास है।

इस धरा पर धारणा कुछ इस तरह की व्याप्त है,

जिसको जो भी चाहिए, सब कुछ यहां पर्याप्त है॥

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