बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

23. दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह

1

मुश्किलें हैं सामने और जूझते हैं हम,

मंजिलें हैं कौन सी,यह पूछते हैं हम,

जी रहे हैं जिंदगी को बोझ की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

2

जो भी आया सामने वह काम कर लिया,

थक गया तो दो घडी़ आराम कर लिया,

हर हादसे को देखता हूं मौज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

3

शांत मन से सोचूं दुनिया जागती देखूं,

चंचल मन से सोचूं दुनिया भागती देखूं,

दुनिया बदले रंग मेरे सोच की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

4

सोचता हूं काम का मैं ढंग बदल लूं,

रूप बदल लूं मैं नया रंग बदल लूं,

चाल ढाल कर लूं किसीऔर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

5

है कलयुगी व्यापार का यह कैसा चमत्कार,

सब करते झूठ को सरे बाजार नमस्कार,

वो सर झुकाए जा रहा सच, चोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

6

भाव की अभिव्यक्ति को मिलते नहीं हैं शब्द,

लय के अभाव में यही है गीत का प्रारब्ध,

साज से सुर हैं निकलते शोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

7

जिंदगी का लक्ष मैं पहचानता नहीं,

जा रहा हूं किस दिशा यह जानता नहीं,

नियति है पतंग बंधी डोर की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

8

सामाजिक प्राणी है मानव,रहता है नियम से,

खाना-पीना-सोना सब-कुछ करता सही समय से,

नियमित और अनुशासित जीवन फ़ौज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

9

एक वोट की ताक़त, सोचूं राज मिल गया,

प्रजातांत्रिक परंपरा में ताज मिल गया,

गंगू तेली सोचे राजा भोज की तरह,

दिन एक और बीत गया रोज़ की तरह॥

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