रविवार, 13 सितंबर 2009

2. मेरा जीवन



मेरा जीवन कोरा कागज़,
हाशिए में जी रहा हूँ।
सोचने का वक्त दुर्लभ,
मैं सफ़र में ही रहा हूँ॥

दिनचर्या ख़ुद ही लिख जाती,
दिन भर बीती सारी बातें।
समय सोख लेता है सुर्खी,
मिट जाती हैं सारी यादें॥


जब चाहूँ मैं कुछ लिख डालूँ,
जानें कहाँ कलम खो जाती।
गहरा-चिंतन; पैनी-दृष्टि;
उस पल ही मुझको बिसराती॥


कलम मिली तो हुआ जरूरी,
ढूँढूँ अपनी शब्द सियाही।
भाषा में बदलाव आ गया,
स्याही मैंने सूखी पाई॥

सोच रहा हूँ लिखना छोडूँ ,
काम करूँ कुछ ऐसे दुष्कर।
पढ़ने का भी कष्ट न होवे।
लोग सराहें चित्र समझ कर॥

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