रविवार, 13 सितंबर 2009

5. सपने

-= 1 =-

तुम्हारी नसीब में तुम्हारे;

मेरी नसीब में मेरे,

न देख सकता हूँ तुम्हारे;

न दिखा सकता हूँ अपने,
..............................सपने।


-= 2 =-

जब भी चाहूँ देख सकूँ; यह सुविधा नहीं है मुझको,

और चाहकर भी अनदेखा; करना मुश्किल उसको।

काट-छाँट भी नहीं है सँभव; है ऐसी मजबूरी,

हैं तो सपने; मेरे अपने; फिर यह कैसी दूरी॥

जीवन कई बार अजीब सी परिस्थितियों में ला खड़ा करता है जब विचित्र से मानसिक द्वन्द में हम उलझ जाते हैं | ऐसी ही मनस्थिति को बहुत सहज माध्यम से कहने का प्रयास है उपरोक्त पंक्तियाँ |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें