रविवार, 27 सितंबर 2009

9. मर्यादा पुरुषोत्तम राम

मूल्यों को जो तिलांजलि दे; बिकते सुख-सुविधा के दाम|
धन के  भूखे पद के लोभी, चलते हैं नेता के नाम||
जनता जागे नेता सोए, कैसे ये विधना के काम|

क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


हरित-क्रांति  और श्वेत-क्रांति की बातें आ कर चली गई|
अन्त्योदय के वादे पा कर; जनता फिर-फिर छली गई||
सोच-सोच कर इन बातों को; हुई रात की नींद हराम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


बचपन बीता पुस्तक ढोते; ज्ञान-साधना सुप्त हुई|
होड़ जवानी में ललकारे; खेल-भावना लुप्त हुई||
भूल गए सुर पैंजनियां के; आँगन में कब ठुमके राम|
 क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||


आज पेट भर रोटी खा कर भूख कहाँ मिट पाती है| 
चाहे जितना पा जाएँ फिर भी ईच्छा रह जाती है|
बिना यतन के धन पाने की ईच्छा रहती सुबहो-शाम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||



भगवद्-गीता में श्री कृष्ण ने कहा - 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम||' एक प्रचलित व लोकप्रिय गीत के बोल भी हैं : 'जब-जब होता नाश धर्म का और पाप बढ़ जाता है, तब लेते अवतार प्रभु और विश्व शांति पाता है'| उपरोक्त रचना उसी भावः से प्रेरित है|

3 टिप्‍पणियां:

  1. kyun netaon ka munh taken, khud hi samay sudharen...
    4 yugon mein 10 avtaar, kyun na khud teer dhanush par dharen...

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  2. The poems in themselves are good... but in my personal and yet amateurish opinion, for someone possessing these many years of experience and intellect they could be more insightful and with a perspective that is educative for us and yet with a unique identity...

    On the other hand, what I say might not be correct as I could very well have failed to grasp the essence of your creations due to my own inexperience and limitations of thought given my age..

    Regards,
    Ashutosh

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  3. मेरी रचनाएँ स्वांत-सुखाय होती हैं | अलग-अलग समय पर अलग-अलग परिस्थितियों में मन में उठते तूफ़ान को शांत करने का भी मेरा यह एक माध्यम है | आमतौर पर व्यवस्था के शोषण से व्यथित भावाभिव्यक्ति में स्वयं को तटस्थ कर लेना मेरी मजबूरी बन जाता है | अपने पुरुषार्थ पर पूरा भरोसा है तथापि अपनी सीमा का भान भी है |

    'सुना था गुना था मनन भी किया था

    अकेले चलूँ ये जतन भी किया था

    आहट सुनी, मुड़के पीछे जो देखा

    पहलू में मेरे बुढापा खड़ा था |'

    उपरोक्त पंक्तियाँ ऐसे ही किसी प्रश्न का हल खोजते हुए बन गई थी| 'बुढापा' शब्द का अभिप्राय समय की उस सीमा से था जो लाचार बना देती है |

    मेरी रचनाएँ शोला तो नहीं हैं पर चिंगारी का काम कर सकती है जहाँ उसे क्षमतावान लोग मिल जाएँ जो जीवन में अंधकार दूर करने की इच्छा से मशाल हाथों में लेने का इरादा रखते हों |

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