मूल्यों को जो तिलांजलि दे; बिकते सुख-सुविधा के दाम|
धन के भूखे पद के लोभी, चलते हैं नेता के नाम||
जनता जागे नेता सोए, कैसे ये विधना के काम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||
हरित-क्रांति और श्वेत-क्रांति की बातें आ कर चली गई|
अन्त्योदय के वादे पा कर; जनता फिर-फिर छली गई||
सोच-सोच कर इन बातों को; हुई रात की नींद हराम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||
बचपन बीता पुस्तक ढोते; ज्ञान-साधना सुप्त हुई|
होड़ जवानी में ललकारे; खेल-भावना लुप्त हुई||
भूल गए सुर पैंजनियां के; आँगन में कब ठुमके राम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||
आज पेट भर रोटी खा कर भूख कहाँ मिट पाती है|
चाहे जितना पा जाएँ फिर भी ईच्छा रह जाती है|
बिना यतन के धन पाने की ईच्छा रहती सुबहो-शाम|
क्या कलयुग में पैदा होंगे मर्यादा पुरुषोत्तम राम||
भगवद्-गीता में श्री कृष्ण ने कहा - 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम||' एक प्रचलित व लोकप्रिय गीत के बोल भी हैं : 'जब-जब होता नाश धर्म का और पाप बढ़ जाता है, तब लेते अवतार प्रभु और विश्व शांति पाता है'| उपरोक्त रचना उसी भावः से प्रेरित है|
रविवार, 27 सितंबर 2009
बुधवार, 23 सितंबर 2009
8. बीच सफ़र में
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
सफ़र अभी ही शुरु हुआ था, नदिया में तूफ़ान आ गया।
खडा़ हुआ मजबूर किनारे, देख रहा उस पार गाँव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
दिन का भी अवसान हो रहा,सूर्य अस्त हो रहा आस का।
ना जाने कब मिल पाएगा, रैन-बसेरा थके पांव को।
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
जीवट वाला केवट होवे, नौका में होवे मजबूती।
लगन लगी हो,दृढ़ निश्चय हो,पहुंचेगा वह तभी ठांव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित,खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
सफ़र अभी ही शुरु हुआ था, नदिया में तूफ़ान आ गया।
खडा़ हुआ मजबूर किनारे, देख रहा उस पार गाँव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
दिन का भी अवसान हो रहा,सूर्य अस्त हो रहा आस का।
ना जाने कब मिल पाएगा, रैन-बसेरा थके पांव को।
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित, खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
जीवट वाला केवट होवे, नौका में होवे मजबूती।
लगन लगी हो,दृढ़ निश्चय हो,पहुंचेगा वह तभी ठांव को॥
बीच सफ़र में, नदी किनारे, एक मुसाफ़िर आस लगाए।
नज़रें चिंतित,खोज रही हैं, इक केवट को, एक नाव को॥
रविवार, 20 सितंबर 2009
7. पाथेय
चार दिनों की कर तैयारी,
साथ चले थे जीवन-साथी।
करें अचंभा, अनजाने ही,
कब इतना पाथेय कर लिया॥
पार कर रहे जीवन-गंगा,
नाव खा रही है हिचकोले,
ये कैसा पाथेय कर लिया॥
छोटा सा तो सफ़र कर रहे,
सिर पर इतना भार धर लिया।
पग डग में करते हैं डगमग,
क्यों इतना पाथेय कर लिया॥
साधारणत: सफ़र में क्षुधापूर्ति के लिए साथ लिए गए खाद्यान्न को पाथेय कहा जाता है| यहाँ जीवन के सफ़र में काम आ सकने की कल्पना कर संचित की गई वस्तुओं को; व्यापक सन्दर्भ में पाथेय कहा गया है|
साथ चले थे जीवन-साथी।
करें अचंभा, अनजाने ही,
कब इतना पाथेय कर लिया॥
पार कर रहे जीवन-गंगा,
नाव खा रही है हिचकोले,
ये कैसा पाथेय कर लिया॥
छोटा सा तो सफ़र कर रहे,
सिर पर इतना भार धर लिया।
पग डग में करते हैं डगमग,
क्यों इतना पाथेय कर लिया॥
साधारणत: सफ़र में क्षुधापूर्ति के लिए साथ लिए गए खाद्यान्न को पाथेय कहा जाता है| यहाँ जीवन के सफ़र में काम आ सकने की कल्पना कर संचित की गई वस्तुओं को; व्यापक सन्दर्भ में पाथेय कहा गया है|
सोमवार, 14 सितंबर 2009
6. मातृभाषा - राष्ट्रभाषा
मातृभूमि से अगणित आशा;
मातृस्नेह की है अभिलाषा।
फिर क्यों झिझकें; क्यों न बोलें;
मातृभाषा - राष्ट्रभाषा॥
हिंदी से जिन्हें लगाव होता है उनके मन में 'हिंदी दिवस' के दिन वैचारिक हलचल होना स्वाभाविक है| मातृभाषा ही माध्यम है दिल की बात को उचित अभिव्यक्ति देने का और उसे सही सन्दर्भ में श्रोता के दिल तक पहुँचाने का| यह कठिन नहीं है, बस थोड़े से प्रयास की और थोड़े अभ्यास की जरूरत है| 'हिंदी दिवस' के अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन|
मातृस्नेह की है अभिलाषा।
फिर क्यों झिझकें; क्यों न बोलें;
मातृभाषा - राष्ट्रभाषा॥
हिंदी से जिन्हें लगाव होता है उनके मन में 'हिंदी दिवस' के दिन वैचारिक हलचल होना स्वाभाविक है| मातृभाषा ही माध्यम है दिल की बात को उचित अभिव्यक्ति देने का और उसे सही सन्दर्भ में श्रोता के दिल तक पहुँचाने का| यह कठिन नहीं है, बस थोड़े से प्रयास की और थोड़े अभ्यास की जरूरत है| 'हिंदी दिवस' के अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन|
रविवार, 13 सितंबर 2009
5. सपने
-= 1 =-
तुम्हारी नसीब में तुम्हारे;
मेरी नसीब में मेरे,
न देख सकता हूँ तुम्हारे;
न दिखा सकता हूँ अपने,
..............................सपने।
-= 2 =-
जब भी चाहूँ देख सकूँ; यह सुविधा नहीं है मुझको,
और चाहकर भी अनदेखा; करना मुश्किल उसको।
काट-छाँट भी नहीं है सँभव; है ऐसी मजबूरी,
हैं तो सपने; मेरे अपने; फिर यह कैसी दूरी॥
जीवन कई बार अजीब सी परिस्थितियों में ला खड़ा करता है जब विचित्र से मानसिक द्वन्द में हम उलझ जाते हैं | ऐसी ही मनस्थिति को बहुत सहज माध्यम से कहने का प्रयास है उपरोक्त पंक्तियाँ |
तुम्हारी नसीब में तुम्हारे;
मेरी नसीब में मेरे,
न देख सकता हूँ तुम्हारे;
न दिखा सकता हूँ अपने,
..............................सपने।
-= 2 =-
जब भी चाहूँ देख सकूँ; यह सुविधा नहीं है मुझको,
और चाहकर भी अनदेखा; करना मुश्किल उसको।
काट-छाँट भी नहीं है सँभव; है ऐसी मजबूरी,
हैं तो सपने; मेरे अपने; फिर यह कैसी दूरी॥
जीवन कई बार अजीब सी परिस्थितियों में ला खड़ा करता है जब विचित्र से मानसिक द्वन्द में हम उलझ जाते हैं | ऐसी ही मनस्थिति को बहुत सहज माध्यम से कहने का प्रयास है उपरोक्त पंक्तियाँ |
4. मैं मेरा और मेरा मैं
मैं ही वादी - मैं प्रतिवादी
मैं ही न्यायाधीश यहां।
मन की अदालत- मन की गवाही
मन का ही विश्वास यहां॥
...............नहीं यहां पर संगी साथी,
...............नहीं सूझती राह यहां।
...............चिंता मेरी-चिंतन मेरा,
...............मेरा मुझको साथ यहां॥
प्रहरी बना मैं शीश महल का,
जागूं सारी रात यहां।
कंकर पत्थर ले हाथों में,
मौका तकते लोग यहां॥
...............सबके सुख की करूं कामना,
...............सुखी सभी हों लोग यहां।
...............सपना मेरा अपना है पर,
...............सपने लेना दोष यहां॥
सभी यहां थे संगी साथी,
सभी स्वजन और मित्र यहां।
काम पडा़ जब नज़र घुमाई,
सभी पराए लोग यहां॥
इस रचना को जब भी पढ़ता हूँ ; मुझे स्व. पु.ल.देशपांडे की ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ बरबस ही याद आ जाती हैं 'कसा मी; कसा मी;कसा मी कसा मी, जसा मी तसा मी; असा मी; असा मी' |
3. मूर्तिकार
आवश्यक औजारों को हाथों में थामता है;
अनगढ़ शिलाओं को अनुभव से जाँचता है।
श्रम करता है, पसीना बहाता है;
समय की पूँजी उस पर लुटाता है।
वाँछित को रखता है; अवाँछित छाँटता है,
सफल हो जाए तो मूर्तिकार कहलाता है।
अनगढ़ शिलाओं को अनुभव से जाँचता है।
श्रम करता है, पसीना बहाता है;
समय की पूँजी उस पर लुटाता है।
वाँछित को रखता है; अवाँछित छाँटता है,
सफल हो जाए तो मूर्तिकार कहलाता है।
2. मेरा जीवन
हाशिए में जी रहा हूँ।
सोचने का वक्त दुर्लभ,
मैं सफ़र में ही रहा हूँ॥
दिनचर्या ख़ुद ही लिख जाती,
दिन भर बीती सारी बातें।
समय सोख लेता है सुर्खी,
मिट जाती हैं सारी यादें॥
जब चाहूँ मैं कुछ लिख डालूँ,
जानें कहाँ कलम खो जाती।
गहरा-चिंतन; पैनी-दृष्टि;
उस पल ही मुझको बिसराती॥
कलम मिली तो हुआ जरूरी,
ढूँढूँ अपनी शब्द सियाही।
भाषा में बदलाव आ गया,
स्याही मैंने सूखी पाई॥
सोच रहा हूँ लिखना छोडूँ ,
काम करूँ कुछ ऐसे दुष्कर।
पढ़ने का भी कष्ट न होवे।
लोग सराहें चित्र समझ कर॥
1. जीवन की कीमत
दुनिया की इस उहापोह में,
जीवन का दुर्लक्ष हुआ।
नून-तेल-लकडी़ में सीमित,
इस जीवन का लक्ष हुआ॥
आज सफलता की परिभाषा,
क्रय क्षमता तक सीमित है।
'और कमाओ - और चाहिए',
यही भावना जीवित है॥
इसी यज्ञ में दे आहूती,
पल-पल अपने हर पल की।
कौडी़ मोल लगा दी कीमत,
अपने दुर्लभ जीवन की॥
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